मिलो कभी खुद से |weekendpoetry

ये सुनसान गलियां और रातें
बताओ यहाँ तुम्हारा कौन है
किसकी तलाश में भटक रहे हो
हर दम बेफ़िक्र, बेख़बर हो कर के

मिलो कभी खुद स
ज़माने में रखा क्या ह
तज़ुर्बे की बात करो अपन
यहाँ गलियों में भटक कर किसी को मिला क्या ह

कहानियाँ बनाओ खुद क
इतिहास के पन्नों में तो बस कुछ ही नाम है
ठोकरे सभी ने खाई है अपने हिस्से क
बस अब आने वाले कल में एक तुम्हारा नाम ह

माना ख्वाइशें तुम्हारी आज भी क़ैद है
पर छुपाओ न खुद से खुद ह को
बहाने तो बना लिए लाखों आज तुमने
अब आने वाले कल का भी क्या वही हश्र है?

©weekendpoetry

16 thoughts on “मिलो कभी खुद से |weekendpoetry

  1. Ravindra Kumar Karnani says:

    पूरी कविता ही विशेष  है , पर अति विशेष है :
    “बहाने तो बना लिए लाखों आज तुमने
    अब आने वाले कल का भी क्या वही हश्र है? ”
    गजब लिखा है साधुवाद आपको |  
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